Bhed aur Abhed – कहा जाता है कि जैन धर्म के वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौंबीसवें (24वें) तीर्थंकर महावीर जी से जब पूछा गया कि ईश्वर क्या है? तो उन्होंने कहा, ‘उसे बताने के लिए कोई शब्द नहीं है। उसे उपमा से भी नहीं समझाया जा सकता। सारे शब्द वहां से टकराकर लौट आते हैं। तर्क वहां ठहरता नहीं, बुद्धि उसे ग्रहण नहीं कर पाती है। वह न गंध है, न रूप है, न रस, न शब्द और न स्पर्श है।’
आत्मा और परमात्मा को शब्दों के माध्यम से बताने के प्रयास तो होते ही रहे हैं। और इन्हीं के आधार पर दार्शनिक मतवाद कायम हुए और उनमें सदैव संघर्ष हुए। कोई भक्ति को शून्य में, तो कोई एक परमसत्ता में विलीन होना कहता है, तो कोई अनंत होना कहता है। इन्हीं बातों को लेकर समय-समय पर शास्त्रार्थ होते रहे, ग्रंथ रचे जाते रहे। इन बातों में अंतर सिर्फ शब्दों का है। आकाश सामने है। कोई इसे शून्य कह सकता है, कोई अनंत, और कोई परमसत्ता।
सर्वत्र Bhed aur abhed है!
शब्दों को पकड़कर मीमांसा करें, तो हमें सर्वत्र भेद ही भेद या फिर Bhed aur Abhed ही दिखाई देंगे।
abhed दृष्टि से देखें, तो एक में, अनंत में, शून्य में कोई bhed नहीं है।
मगर इसका अनुभव वही कर सकता है, जो इंद्रिय-जगत के पार चला गया है। वह मौन हो जाता है।
उसके लिए यह अनुभव कबीर के शब्दों में ‘गूंगा केरी शर्करा खाय या मुस्काए’
मतलब कि वह बता नहीं सकता कि स्वाद कैसा है?
वही गूंगेपन की स्थिति उस भूमिका में हो जाती है।
वह जो कहता है, वह एक दूरस्थ ध्वनि-संकेत जैसा होता है।
उसे पकड़कर बुद्धि अपने अर्थ निकाल लेती है और अपनी-अपनी परंपराएं खड़ी कर देती है।
हालांकि मूल सत्ता के स्तर पर bhed कहीं नहीं है।