लोग कहते हैं कि बुद्ध का जो Renunciation है, वो असल में एक तरह का पलायन था। यह आप इस वजह से कहते हैं कि आपको लगता है कि ‘विवाह’ एक प्राकृतिक बंधन है और इस से अलग होने वाला ‘पलायन’ करने वाला होता है। क्योंकि यह आपने उस समाज से सीखा है जिसने विवाह जैसी संस्था का निर्माण किया है।
जबकि यह आपकी एक सतही समझ हैं। विवाह मनुष्यों की देन है, प्रकृति की नहीं है। लोगो को डर लगता है कि अगर बुद्ध के Renunciation का समर्थन कर दिया। तो कहीं किसी का पति और बेटा ऐसा ही न कर करने लगे। यही एक ‘क्षुद्र’ भय और सतही समझ है जो लोगों को परेशान किए रहता है। अपने इस भय को “जस्टिफाई” करने के लिए लोग इधर-उधर की बातें करने लगते हैं। लोग सच बात आपको नहीं बताते।
Buddha’s renunciation की तरह सब घर छोड़ दें तो दुनिया का क्या होगा?
लोगो का यह कथन कुछ अजीब सा लगता! क्या किसी भी काल में ऐसा कभी हुआ है कि सारे मनुष्य एक ही काम करने लगें? कोई चाहे कितना ही प्रवचन दे डाले, हद से हद दो-चार या दस प्रतिशत ही आपको सुनने वाले होंगे। उनमें से एक-दो प्रतिशत भी आपकी बात मान कर अपने जीवन में उतार लें तो समझिए ये बहुत बड़ी उपलब्धि हो गयी। स्कूल से लेकर रेलवे स्टेशन तक, हर जगह नैतिकता से भरी बातें लिखी रहती हैं। झूठ न बोलो, चोरी न करो। क्या आप यह सब पढ़कर अपने जीवन में उतार लेते हैं?
अगर मैं नौकरी करने वाले 1000 व्यक्तियों से ये कहूँ कि वे अपनी नौकरी छोड़ कर आओ मेरे साथ बैठकर ध्यान करो, तो शायद उनमें से एक या दो ही आएंगे। या फिर कोई न आए। इतने विपश्ना कैम्प दिन रात लगते हैं। योग और ध्यान कैम्प लगते रहते हैं, कौन अपना घर-बार छोड़ कर वहां जा रहा है? कितने प्रतिशत पुरुष वहां जा कर सन्यास ले चुके हैं? यहां कितने साधू-संत बन गए हैं?
समाज ने आपको बता दिया कि अपने बच्चे को सेना में भेजना और देश पर Renunciation कर देना बड़े गर्व की बात होती है। आप अपने बच्चे को वहां भेज देंगे, कि जाओ देश पर बलिदान हो जाओ। यानि पत्नी बच्चे को छोड़ कर जाओ मर जाओ। क्या आपके हिसाब से यह पलायन नहीं है, बलिदान है। क्रांति और सामाजिक बदलाव के लिए आप अपने बच्चे का बलिदान देते हैं। तब आपके हिसाब से वो पलायन नहीं है क्योंकि हमारे समाज ने इस सब को बड़ी खूबसूरती से शौर्य वाला कार्य बता दिया है। आप सभी ने उसमें “यक़ीन” भी कर लिया। और यह मान लिया कि बुद्ध का काम कोई शौर्य वाला काम नहीं था, पलायन था।
अपने “क्षुद्र” भय की वजह से इतने महत्वपूर्ण टॉपिक को आप “हल्का” मत लीजिये। वो व्यक्ति जिसने एक नए युग और बिल्कुल नई सोच को जन्म दिया उसे अपने क्षुद्र भय के कारण “बेकार” साबित करने की दिन-रात चेष्टा मत कीजिये। हम सब को ऐसे ही एक दिन पलायन करके इस धरती से चले जाना है। वही असल में पलायन होगा। उस असली पलायन के पहले अगर कुछ जिज्ञासु आपकी सामाजिक संस्थाओं के बंधन को तोड़कर आज़ाद होना चाहते हैं तो उन्हें ‘होने’ दीजिए। अपने इस ‘क्षुद्र भय’ को अपनी नस्लों में मत भरिये।
~ताबिश सिद्धार्थ