नई पीढ़ी के ज़्यादातर युवाओं को ये नहीं मालूम है कि महात्मा बुद्ध कौन थे? इसी वर्ग के बहुत सारे लोग ये समझते हैं कि बुद्ध भी शायद हमारे पैगम्बर जैसे थे। तो नई पीढ़ी के उन सब को ये सच बताना जरूरी है कि Mahatma Buddh कोई भगवान या पैगम्बर नहीं थे! उन्हें भगवान या पैगम्बर समझने कि भूल मत करें।
मेरी एक मित्र जो कि बौद्ध हैं, मुझ से कह रही थीं कि आपको उन मुसलमानों को समझाना चाहिए जो ये समझ रहे हैं कि बौद्ध होना किसी मज़हब का हिस्सा होना होता है, जबकि बौद्ध कोई धर्म नहीं है। आपको उन्हें दिखाना चाहिए कि कितनी बड़ी तादात में मुसलमान देश और विदेश से विपस्सना शिविर में आते हैं। यही ध्यान ही एकमात्र बुद्ध की साधना है। क्योंकि मुसलमान हर धर्म को मूर्तिपूजा समझता है और इसी वजह से वो भड़क जाता है।
मैं अपनी इस अज़ीज़ दोस्त की बात से सहमत नहीं हूँ। मुझे कभी भी ये महसूस नहीं होता है कि मुझे किसी को कभी अपने निजी फैसलों के लिए किसी तरह के दलील और वजह बताने की आवश्यकता है। क्योंकि मैं क्या धर्म मानता हूँ, क्या नहीं? मैं किस तरह के कपड़े पहनता हूँ? मैं क्या खाता पीता हूँ? इसे कोई दूसरा तय नहीं करेगा।
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Islam को मूर्तिपूजा के पक्ष में दलील क्यों दी जाए?
- मैं अगर इस्लाम के अलावा दूसरा धर्म भी मानता हूँ तो मुझे उस धर्म को इस्लाम की नज़र से Justify करने की क्या ज़रूरत है?
- क्यों आपको ये दलील दी जाये कि बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा नहीं है?
- क्यों आपको ये दलील दी जाये कि Mahatma Buddh भगवान नहीं थे?
- कौन हैं आप लोग? जिनके हिसाब से दुनिया के विभिन्न धर्मों का पैमाना तय किया जाए?
- आपके धर्म में मूर्तिपूजा ग़लत है, तो सारी दुनिया के धर्म आपके हिसाब से खुद को Adjust करके मूर्तिपूजा का त्याग कर दें?
- या चोरों की तरह आपको दलील देते फिरें कि मूर्तिपूजा करके उन्होंने कोई पाप कर दिया है?
किसी भी रीतिरिवाज या कर्मकांड का पैमाना कोई एक धर्म या उसके मानने वाले तय नहीं कर सकते हैं। हिन्दू ये तय नहीं कर सकता है कि मुसलमान कैसे नमाज़ पढ़े तो मुसलमान भी ये नहीं तय कर सकता है कि हिन्दू कैसे पूजा करे या बुद्धिस्ट कैसे ध्यान करें। और वो जो कर रहे हैं वो ग़लत है या सही, ये आप तय करने वाले कोई नहीं होते हैं!
भारतीय दर्शन को समझ पाना आसान नहीं है!
दरअसल यहाँ ये गंदगी ज़ाकिर नायक जैसे लोगों ने शुरू की थी। यहां के भोले लोग और उस समय की सरकारें उस जैसों की चाल समझने में चूक गयी थीं। उसी ने वेदों और पुराणों से एक श्लोक उठा कर बार-बार ये साबित करने की कोशिश की, कि देखो हर किताब में मूर्तिपूजा का विरोध है। वो हज़ारों लाखों श्लोक और सूक्तियों में से सिर्फ़ एक श्लोक या सूक्ति उठाकर उसमें मूर्तिपूजा के विरोध का अनुवाद दिखा देता था। और सारे धर्म के लोग इसे सुनते रहे और उस से बहस करते रहे। उसने लोगों को ये कभी नहीं बताया कि उन्हीं किताबों में नास्तिकता की भी पैरवी है और मूर्तिपूजा की भी।
यहां धर्म के कितने दर्शन हैं वो धूर्त ये कभी नहीं बताता था। लोग उसको सफ़ाई ही देते रहे, और किसी ने उस से पलट के ये नहीं पूछा कि तुम्हारे सौ प्रतिशत धार्मिक कर्मकांड “मूर्तिपूजकों” के हैं और उसे तुमने अपने धर्म मे सम्मिलित कर लिया तो क्या अब वो कर्मकांड “मूर्तिपूजा” नहीं रहे? ये किस तरह की सीना-ज़ोरी है कि सारी दुनिया तुमको अपनी आस्था के लिए सफ़ाई देती फिरे और तुम मज़े से मूर्तिपूजक रिवायतों को करते रहो?
दोनों धार्मिक धारणाएं विपरीत ध्रुव हैं!
बुद्ध बुद्ध हैं, मोहम्मद मोहम्मद हैं। Mahatma Buddh कोई पैग़म्बर नहीं थे। दोनों की विचारधाराएं विपरीत ध्रुव की हैं। बुद्धिस्ट एक प्रतिशत भी अपेक्षा नहीं रखता है कि आप बुद्ध को कोई पैग़म्बर मानें। क्योंकि पैग़म्बरी का कांसेप्ट सिमेटिक धर्मों का कांसेप्ट है और बुद्ध उसमें कहीं नहीं फ़िट होते हैं। बुद्धिस्ट भी मोहम्मद को भगवान या बोधिसत्व नहीं मानता है क्योंकि उनकी शिक्षाएं भी बौद्ध धर्म के दायरे में कहीं फ़िट नहीं होती हैं। ये दोनों धार्मिक धारणाएं विपरीत ध्रुव हैं। इनका कोई मेल नहीं, न इनकी शिक्षाओं का न इनकी मान्यताओं का। इसलिए दोनों की तुलना करना ही बेमानी है।
इसलिए अब वो दिन गए, इसी सीना-ज़ोरी और इसी दादागिरी के ख़िलाफ़ मेरा सारा अभियान है।
मेरा धर्म मुझे पूजा सिखाता है, ध्यान सिखाता है, या नमाज़ सिखाता है,
तुम्हें किसी तरह के दलील देने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है।
क्योंकि मैं तुमसे नहीं कहने आता हूँ कि तुम ध्यान नहीं करते हो तो “गुनाह” करते हो।
और एक बात अच्छी तरह दिमाग़ में बैठा लीजिये, कि Mahatma Buddh कोई पैग़म्बर नहीं थे।
इस तरह के बचपने में ऐसे इंसान को न घसीटो जो चेतना के शिखर से बोलता था।
पैग़म्बर पैग़म्बर वाला खेल आप खेलिए।
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Mahatma Buddh जैसा दूसरा कोई नहीं है!
Mahatma Buddh स्वयं में सब कुछ थे।
उनको कहीं से कोई आयतें नाज़िल नहीं होती थी।
क्योंकि उनकी आम बोलचाल ही “वही” थी।
कोई ख़ुदा कहीं बाहर से उनको कुछ नहीं बोलता था।
कोई ख़ुदा अगर कहीं था भी, तो वो उन के भीतर था।
वो किसी आसमानी ख़ुदा के भेजे हुए मैसेंजर नहीं थे।
उनका मैसेज इस सृष्टि का मैसेज था, उनकी बोली इस क़ुदरत की बोली थी।
जो आज भी उतनी ही सार्थक है जितनी ढाई हजार साल पहले थी।
~ताबिश सिद्धार्थ